Saturday, November 26, 2011

दरबार ऐ वतन में जब एक दिन- फैज़ अहमद फैज़

दरबार ऐ वतन में जब एक दिन ,
सब जाने वाले जायेंगे ,
कुछ अपनी सजा को पहुचेंगे,
कुछ अपनी जजा ले जायेंगे !

ऐ ख़ाक नशीनों! उठ बैठो ,
वो वक़्त करीब आ पहुंचा है ,
जब तख़्त गिराए जायेंगे ,
जब ताज उछाले जायेंगे !

अब टूट उठेंगी जंजीरें ,
अब ज़िन्दानों की खैर नहीं ,
जो दरिया झूम के उठते हैं ,
तिनकों से ना टालने पायेंगे !

कटते भी चलो बढ़ते भी चलो ,
बाजु भी बहुत है सर भी बहुत ,
चलते भी चलो के अब डेरे ,
मंजिल पे ही डाले जायेंगे !

ऐ ज़ुल्म के मातो ! लब खोलो ,
चुप रहने वाले अब चुप कब तक ,
कुछ हश्र तो इनसे उठेगा ,
कुछ दूर तो नाले जायेंगे !!

"फैज़ अहमद फैज़ "

Monday, November 21, 2011

मेरी कवितायेँ : फिर से एक नयी कहानी

कोई फिरसे लिखे मुझपे अपनी कहानी ,
ऐ खुदा तू मुझे फिर से कोरा कागज़ कर दे ,

फिर रौशनी के लिए जलना है मुझे ,
उस गए धुंए को फिर से मोम कर दे ,

फिर एक नयी तक़दीर बनना है मुझे ,
मेरे हाथों की लकीरों को फ़ना करदे ,

फिर से उसी जड़ से उगना है मुझे ,
इस कटे मन के घावों को पूरा भर दे ,

" भुमिपुत्र "